Home > National-mudde

Blog / 17 Feb 2020

(राष्ट्रीय मुद्दे) जम्मू-कश्मीर में सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम (PSA in Jammu & Kashmir and Concerns)

image


(राष्ट्रीय मुद्दे) जम्मू-कश्मीर में सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम (PSA in Jammu & Kashmir and Concerns)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): एयर मार्शल कपिल काक (कश्मीर मामलों के जानकार), शैख़ मंज़ूर अहमद (वरिष्ठ पत्रकार)

चर्चा में क्यों ?

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की भारत यात्रा से पहले अमेरिका के 4 सीनेटरों ने हाल ही में कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों को लेकर और कश्मीर के राजनेताओं की हिरासत को लेकर अपनी चिंता ज़ाहिर की।

अमेरिका के सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट माइक पोम्पियो को लिखे गए एक खत में सीनेटरों ने जम्मू काश्मीर में धरा 370 के कुछ प्रावधानों को हटाए जाने के बाद बंद इंटरनेट सेवाओं के मसले को उठाया।

जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्रियों उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती के खिलाफ जन सुरक्षा कानून (पीएसए) के तहत मामला दर्ज किया गया। पिछले साल अगस्‍त में जम्‍मू कश्‍मीर का विशेष दर्जा खत्म किए जाने के बाद से ही ये दोनों नेता नजरबंद हैं।

इसके साथ ही दो अन्य नेताओं पर भी पीएसए लगाया गया है, जिनमें नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के वरिष्ठ नेता अली मोहम्मद सागर और पीडीपी के नेता सरताज मदनी शामिल हैं।

नौकरशाह से नेता बने शाह फैसल के भी पीएसए के तहत नजरबंद होने की संभावना है।ये सभी नेता पिछले साल पांच अगस्त के बाद से एहतियातन हिरासत में रखे गए थे। अब इन पर जन सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) लगा दिया गया है।

अभी तक इस कानून के तहत तकरीबन 412 लोगों को किया गया है । इसमें ज़्यादातर लोगों को 5 अगस्त के बाद DETAIN किया गया जब केंद्र ने अनुच्छेद 370 के कुछ प्रावधानों को ख़त्म कर दिया था । इसके बाद विरोधों को शांत करने के लिए एक बड़े स्तर पर गिरफ्तारियां हुई ।

क्या है सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम ?

जम्मू-कश्मीर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 1978 एक निवारक निरोध (Preventive Detention) कानून है, इसके तहत किसी व्यक्ति को ऐसे किसी कार्य को करने से रोकने के लिये हिरासत में लिया जाता है जिससे राज्य की सुरक्षा या सार्वजनिक व्यवस्था प्रभावित हो सकती है।

इस अधिनियम के तहत व्यक्ति को 2 वर्षों के लिये हिरासत में लिया जा सकता है। यह कमोबेश राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के समान ही है, जिसका प्रयोग अन्य राज्य सरकारों द्वारा नज़रबंदी के लिये किया जाता है। इस अधिनियम की प्रकृति दंडात्मक निरोध (Punitive Detention) की नहीं है। यह अधिनियम मात्र संभागीय आयुक्त (Divisional Commissioner) या ज़िला मजिस्ट्रेट (District Magistrate) द्वारा पारित प्रशासनिक आदेश से लागू होता है।

सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम का इतिहास:

जम्मू-कश्मीर में इस अधिनियम की शुरुआत 1978 में लकड़ी तस्करी को रोकने के लिये की गई थी, क्योंकि लकड़ी की तस्करी उस समय की सबसे बड़ी समस्या थी एवं इसके तहत गिरफ्तार लोग काफी आसानी से छोटी-मोटी सज़ा पाकर छूट जाते थे। आपको बता दें की इस अधिनियम की शुरुआत फारूक अब्दुल्ला के पिता शेख अब्दुल्ला ने की थी। 1990 के दशक में जब राज्य में उग्रवादी आंदोलनों ने ज़ोर पकड़ा तो दंगाइयों को हिरासत में लेने के लिये राज्य सरकार ने सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम का प्रयोग काफी व्यापक स्तर पर किया।

गौर तलब है कि साल 2011 से पहले तक जम्मू-कश्मीर के इस अधिनियम में 16 वर्ष से अधिक उम्र के किसी भी व्यक्ति को हिरासत में लेने का प्रावधान था, लेकिन साल 2011 में अधिनियम को संशोधित कर उम्र सीमा बढ़ा दी गई और अब यह 18 वर्ष है।

हालिया सालों में में भी इस अधिनियम का कई दफे प्रयोग किया गया है, साल 2016 में हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकी बुरहान वानी की गिरफ्तारी को लेकर हुए विरोध प्रदर्शनों के दौरान PSA का प्रयोग कर तकरीबन 550 लोगों को हिरासत में लिया गया था।

अधिनियम की ख़ास बातें:

अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, PSA का प्रयोग कर राज्य के किसी भी व्यक्ति को बिना किसी आरोप या जाँच के नज़रबंद किया जा सकता है या उसे हिरासत में लिया जा सकता है। यह नज़रबंदी 2 साल तक की हो सकती है।

PSA उस व्यक्ति पर भी लगाया जा सकता है जो पहले से पुलिस की हिरासत में है या जिसे अदालत से ज़मानत मिल चुकी है। यहाँ तक कि इस अधिनियम का प्रयोग उस व्यक्ति पर भी किया जा सकता है जिसे अदालत ने बरी किया है।

महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि सामान्य पुलिस हिरासत के विपरीत, PSA के तहत हिरासत में लिये गए व्यक्ति को हिरासत के 24 घंटों के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने की आवश्यकता नहीं होती है।

साथ ही हिरासत में लिये गए व्यक्ति के पास अदालत के समक्ष ज़मानत के लिये आवेदन करने का भी अधिकार होता नहीं होता एवं वह इस संबंध में किसी वकील की सहायता भी नहीं ले सकता है।

इस प्रशासनिक नज़रबंदी के आदेश को केवल हिरासत में लिये गए व्यक्ति के रिश्तेदारों द्वारा बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Habeas Corpus Petition) के माध्यम से चुनौती दी जा सकती है।

उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के पास इस तरह की याचिकाओं पर सुनवाई करने और PSA को समाप्त करने के लिये अंतिम आदेश पारित करने का अधिकार है, हालाँकि यदि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय इस याचिका को खारिज कर देते हैं तो उस व्यक्ति के पास इस संबंध में कोई अन्य रास्ता नहीं बचता है।

इस अधिनियम में संभागीय आयुक्त अथवा ज़िला मजिस्ट्रेट द्वारा इस प्रकार के आदेश को पारित करना ‘सद्भाव में किया गया’ (Done in Good Faith) कार्य माना गया है, अतः आदेश जारी करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध किसी भी प्रकार की जाँच नहीं की जा सकती है।

उल्लेखनीय है कि बीते वर्ष जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल ने इस अधिनियम में संशोधन किया था, जिसके अनुसार इस अधिनियम के तहत हिरासत में लिये गए व्यक्ति को अब राज्य के बाहर भी रखा जा सकता है।

PSA लगने के बाद

सामान्यतः इस अधिनियम के तहत जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तो गिरफ्तारी के 5 दिनों के भीतर ज़िले का DM उसे लिखित रूप में हिरासत के कारणों के बारे में सूचित करता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में इस कार्य में 10 दिन भी लग सकते हैं।

हिरासत में लिये गए व्यक्ति को इस प्रकार की सूचना देना DM के लिये आवश्यक होता है, ताकि उस व्यक्ति को भी पता चल सके की उसे क्यों गिरफ्तार किया गया है एवं वह इस संदर्भ में आगे की रणनीति तैयार कर सके। हालाँकि यदि DM को लगता है कि यह सार्वजनिक हित के विरुद्ध होगा तो उसे यह भी अधिकार है कि वह उन तथ्यों का खुलासा न करे जिनके आधार पर गिरफ्तारी या नज़रबंदी का आदेश दिया गया है।

DM को गिरफ्तारी या नज़रबंदी का आदेश सलाहकार बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत करना होता है, इस बोर्ड में 1 अध्यक्ष सहित 3 सदस्य होते हैं एवं इसका अध्यक्ष उच्च न्यायालय का पूर्व न्यायाधीश ही हो सकता है। बोर्ड के समक्ष DM उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व भी करता है और यदि व्यक्ति चाहे तो वह बोर्ड के समक्ष खुद भी अपनी बात रख सकता है।

सलाहकार बोर्ड 8 हफ्तों के भीतर अपनी रिपोर्ट राज्य को देता है और रिपोर्ट के आधार पर राज्य सरकार यह निर्णय लेती है कि यह नज़रबंदी या गिरफ्तारी सार्वजनिक हित में है या नहीं।

कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन 370 हटने के बाद :

कश्मीर में 370 के कुछ प्रावधानों को हटाए जाने के बाद इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गयी थीं , मोबाइल नेटवर्कों को जाम कर दिया गया था , लोगों को हिरासत में लिया गया , विपक्षी पार्टी के कई नेताओं को हिरासत में रखा गया , प्रेस पर पाबन्दियाँ लगाई गयीं , लोगों को विरोध प्रदर्शनों से रोका गया इसके अलावा शक की बिनाह पर कई लोगों को हिरासत में लिया गया । केंद्र की तरफ से सुरक्षा बलों की कई टुकड़ियां कश्मीर भेजी गयीं ।घाटी को बाहरी दुनिया से काट दिया गया, इंटरनेट कनेक्शन, मोबाइल फ़ोन, लैंडलाइन फ़ोन, केबल टीवी, सब कुछ ठप कर दिया गया। लोगों को अपने पास पड़ोस के लोगों से भी मिलने नहीं दिया जा रहा है। प्रशासन ने अपने कर्मचारियों और सुरक्षा बल के लोगों को भी कर्फ़्यू पास नहीं दिया, सरकारी पहचान पत्र को स्वीकार नहीं किया जा रहा है।

हज़ारों लोगों ने जुलूस निकाला, भारत विरोधी नारे लगाए, आज़ादी की माँग की। सुरक्षा बलों ने उन्हें रोका और तितर बितर कर दिया। भारतीय मीडिया इस पर चुप रही, पर अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने इसकी ख़बर दी। बीबीसी, अल जज़ीरा, रॉयटर्स के रिपोर्टर मौके पर मौजूद थे। गृह मंत्रालय ने इसे सिरे से खारिज करते हुए कहा कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं, दूसरी जगहों पर कुछ छिटपुट प्रदर्शन हुए, जिसमें 20 से ज़्यादा लोग शामिल नहीं थे। सरकार कहती रही कि स्थिति सामान्य है।

कई विदेशी मीडिया ने कश्मीर में धरा ३७० हटाए जाने के बाद कश्मीर में व्यापक रूप से हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन को तवज़्ज़ो दी ।बीबीसी ने लगातार केंद्र सरकार द्वारा घाटी में पाबंदी लगाए जाने की खबर को प्रमुखता से उठाया है. बीबीसी की कई रिपोर्ट्स में बताया गया कि सरकार के इस कदम के बाद कश्मीरियों को किस प्रकार कैद होकर जीना पड़ा.अलजजीरा ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि पिछले दो महीने से कश्मीर में सेना ने घेराबंदी कर रखी है. बच्चों को गिरफ्तार किया गया है, उनपर अत्याचार का किए जा रहे हैं. धंधा ठप पड़ा है. मोबाइल और इंटरनेट काम नहीं कर रहे हैं.

निष्कर्ष :

इस अधिनियम की शुरुआत राज्य सरकार द्वारा लकड़ी की तस्करी एवं उग्रवाद से निपटने के लिये की गई थी, परंतु वर्तमान में इस इसका प्रयोग व्यापक स्तर पर मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं, पत्रकारों और राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ किया जा रहा है। समस्या के समाधान के लिये निर्मित इस अधिनियम का दुरुपयोग होने के कारण अब यह खुद एक समस्या बन चुका है। अतः आवश्यक है कि इस अधिनियम में जल्द-से-जल्द संशोधन कर इसे पुनः आतंकवाद एवं उग्रवाद के विरुद्ध एक समाधान के रूप में प्रयोग करने हेतु स्थापित किया जाए।